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शामी कागज

नासिरा शर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11993
आईएसबीएन :9789350727393

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**"शामी काग़ज़ : सीमाओं के पार मानवता की झलकियाँ"**

दो शब्द

मेरी ईरान पर लिखी ये चन्द कहानियाँ उन यात्राओं की उपलब्धियाँ हैं जो मैंने पिछले चार सालों में की हैं। आप इन कहानियों को पढ़ें, इससे पहले आपसे कुछ कहना चाहूँगीं। ये कहानियाँ यथार्थ की धरती पर बोई एक ऐसी खेती हैं जिसके सन्दर्भ में मैं अमीरख़ुसरू के शब्दों को मैं दोहरा सकती हूँ :

मन तो शुदम, तो मन शुदी

मन तन शुदम, तो जां शुदी

(मैं तुझ में और तू मेरे में एकाकार हो गया, मैं शरीर बना तू उसकी आत्मा)

सूफी-दर्शन से ओत-प्रोत इस पंक्ति जैसा हाल मेरा भी था; अपना पराया कुछ न था। बस, जो मेरे दिल और दिमाग़ ने देखा, समझा और महसूस किया, वह काग़ज़ पर ढलकर कहानी बन गया। इस तलाश में सीमा का ध्यान न रहा। सच्चाई भी यही है। कि न मैं सीमा-रेखाओं को पहचानती हूँ और न ही मेरा विश्वास है उन पर। मैं तो केवल दो हाथ, दो पैर, दो कान, दो आँख, एक दिल और एक दिमाग़ वाले इन्सान को पहचानती हूँ। वह जहाँ भी, जिस सीमा, जिस परिधि में जीवन की सम्पूर्ण गरिमा के साथ मिल जाए, वहीं मेरी कहानी का जन्म होता है।

अहसास की भूमि पर रचा मेरा यह कहानियों का संकलन ‘शामी काग़ज़’ एक ऐसा दर्पण है जो ईरानी रंगों से शराबोर होने के बावजूद, इन्सानी भावनाओं का प्रतीक है और उसमें हर देश, भाषा, रंग का इन्सान अपना प्रतिबिम्ब देख सकता है। सभ्यता ने उसे चाहे नई पहचान देकर विभिन्‍न नामों और विभिन्‍न देशी सीमाओं में बाँध दिया है, मगर इससे इनकार नहीं कि हम सब आदम की औलाद वास्तव में एक-दूसरे के अंग हैं जिनकी सृष्टि और उत्पत्ति का स्रोत एक है।

ये कहानियाँ केवल उस जनसमुदाय की संवेदनाओं और वेदनाओं की घड़कनें हैं जो धरती से जुड़ा, आशा और निराशा का संघर्षमय सफर तय कर रहा है।

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